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बचपन से लिखने का शौक हैं कभी-कभी सोचकर लिखता हूँ तो कभी-कभी सब्द खुद ही जहन में आकर लिखने को मजबूर करते हैं

Monday 28 May 2012

इंसानियत की ओर


यह गाना एक बहुत पुरानी हिन्दी फिल्म धूल का फूल से हैं
जिस गाने में एक पिता अपने बच्चे  को यह शिक्षा देता हैं
की तू बड़ा होके इंसान बनना क्यूंकि तू एक इंसान की औलाद हैं
इसलिए मैं इस गाने के माध्यम से आपसे अनुरोध करता हूँ
की आप भी अपने बच्चे को ऐसी ही शिक्षा दीजिये
ताकि आपका बच्चा बड़ा होके एक इंसान बने न की शैतान बने
आज धर्म और जाति के नाम पे दंगे -फर्साद होते हैं
हमे ये सोचना चाहिए की सबसे पहले हम इंसान हैं
फिर हमारा कोई धर्म और जाति  हैं
अंत में एक बार फिर से यही कहूँगा
इंसान हैं इंसान बनिये कुछ ऐसा काम कीजिये .

Thursday 24 May 2012

इंसानियत का गीत

ये विडियो दोस्ती  हिंदी  फिल्म से  हैं 
इस गाने के माध्यम से दो विकलांग लड़के
लोगों से यह कहना चाहते हैं कि
 वे भी इंसान हैं उनसे मुंह ना फेरों
उनकी मदद करों क्यूंकि जिस भगवान ने तुम्हे  बनाया हैं
उसी भगवान ने उन्हें भी बनाया हैं फिर ये भेद ,फर्क और अंतर क्यों

Wednesday 16 May 2012

फन इंटरनेट के साथ

 मैं तो बस इतना ही जानता हूँ
करता हूँ मैं फन इंटरनेट के साथ
रहता हूँ ऑनलाइन इंटरनेट के साथ
करता हूँ टॉक इंटरनेट के साथ
कभी सुनता हूँ ऑनलाइन गीत
तो कभी करता हूँ अपलोड विडियो
मैं तो बस इतना ही जानता हूँ
करता हूँ मैं फन इंटरनेट के साथ


Monday 14 May 2012

माँ को कभी भुलाना नहीं

माँ को कभी भुलाना नहीं
भूलकर भी उसे रुलाना नहीं
कभी उस से दामन छुराना नहीं
किसी बात पे उसे सताना नहीं
भुगतोगे वरना जिन्दगी  भर
कभी ऐसे काम करना नहीं
माँ को कभी गाली देना नहीं
भूलकर भी उसे बुरा कहना नहीं
कभी उसे आंख दिखाना नहीं
किसी बात पे उसपे बिगरना नहीं
पछताओगे वरना जिन्दगी भर
कभी ये गुनाह करना नहीं
माँ को कभी भुलाना नहीं
भूलकर भी उसे रुलाना नहीं

Sunday 13 May 2012

प्रकृति के प्रकोप से नहीं बच पाया हैं कोई

प्रकृति के प्रकोप से नहीं बच पाया हैं कोई
जब आता हैं तूफान तो क्या आमिर -क्या गरीब
सबके घरों के दिए बुझा जाता हैं
ये न कोई जाति देखता हैं ,न ही कोई धर्म समझता हैं
बिन बताये आता हैं, सब तहश-नहश कर जाता हैं
कही सुनामी तो कही भूकंप लाकर हरकंप मचाता हैं
कभी बाढ़ तो कभी सूखा लेकर आता हैं
जब कभी भी आता हैं ,ढेरों गम दे जाता हैं
ये प्रकृति का प्रकोप हैं इस से नहीं बच पाया हैं कोई
जब आता हैं तूफान तो क्या आमिर -क्या गरीब
सबके घरों के दिए बुझा जाता हैं

दहेज़ को जड़ से उखाड़ने की जरुरत हैं

दहेज़ को जड़ से उखाड़ने की जरुरत हैं
हमे और आपको समझने की जरुरत हैं
दहेज़ को लेने से परहेज की जरुरत हैं
दहेज़ न देंगे ये कसम की जरुरत हैं
दहेज़ समाज की एक बड़ी बुराई हैं
इसे अब नकार देने की जरुरत हैं
बाप के सिर का बोझ दहेज़ हैं
भाई की चिंता का कारण दहेज़ हैं
दहेज़ के कारण ही बेटे-बेटी में फर्क हैं
दहेज़ ही तो इन सब की जड़ हैं
दहेज़ को जड़ से उखाड़ने की जरुरत हैं
हमे और आपको समझने की जरुरत हैं

मेरा गुस्सा फूट न जाए

मेरा गुस्सा फूट न जाए
मुझे डर हैं मुझसे खुछ हो न जाए
क्या-क्या सहू मैं ,किस -किस की सुनू मैं
कहाँ जाऊ और किस से कहू मैं
कितना सब्र करू मैं ,और कब तक मौन रहू मैं
जाने कब वो बदलाव आएगा
कैसे वो बदलाव आएगा
जब समाज से कुरीतिया दूर होंगी
जाति-धर्म का भेद मिटेगा
कब अमिरी-गरीबी का खाई भरेगा
देखते-देखते अरसा बीत गया
कुछ नहीं बदला ,और नहीं बदल रहा हैं
अब मेरा गुस्सा फूट न जाए
मुझे डर हैं मुझसे खुछ हो न जाए

हालात से कितना मजबूर हैं आदमी

हालात से कितना मजबूर हैं आदमी
जिन्दगी से कितना मायूस हैं आदमी
ऐसी भी क्या मज़बूरी हैं आदमी की
क्यों इतना मायूस हैं आदमी
सपने सजोए सोता हैं आदमी
आश लगाये बैठा हैं आदमी
हालात से कितना मजबूर हैं आदमी
जिन्दगी से कितना मायूस हैं आदमी
क्यों इतना बेचैन हैं आदमी
इतना क्यों हैरान हैं आदमी
क्यों इतना परेशान हैं आदमी
हालात से कितना मजबूर हैं आदमी
जिन्दगी से कितना मायूस हैं आदमी





माँ जो कुछ सोचती हैं हमारे खातिर सोचती हैं

माँ जो कुछ सोचती हैं हमारे खातिर सोचती हैं
माँ जो कुछ चाहती हैं हमारे खातिर चाहती हैं
माँ जो कुछ करती हैं हमारे लिए करती हैं
माँ जो कुछ मांगती हैं हमारे लिए मांगती हैं
माँ जो कोई सपने देखती हैं  हमारे लिए देखती हैं
माँ जो तकलीफे सहती हैं  हमारे लिए सहती हैं
माँ जो आंसू  बहाती हैं हमारे लिए बहाती हैं
माँ जो कुछ देखती हैं हमारे लिए देखती हैं
माँ जो कुछ सोचती हैं हमारे खातिर सोचती हैं
माँ जो कुछ चाहती हैं हमारे खातिर चाहती हैं