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बचपन से लिखने का शौक हैं कभी-कभी सोचकर लिखता हूँ तो कभी-कभी सब्द खुद ही जहन में आकर लिखने को मजबूर करते हैं

Friday 27 January 2012

अब बहुत हो गया

अब बहुत हो गया
कुछ नहीं अब सहना हैं
चुप नहीं अब रहना हैं
कब तक दहेज़ की पीड़ा सहते रहे
महंगाई की मार खाते रहे
अब बहुत हो गया
कुछ नहीं अब सहना हैं
कब तक बिरोजगार मारा फिरते रहे
अंग्रेजी के आगे घुटने टेकते रहे
कब तक खामोश सब सहते रहे
मज़बूरी का रोना रोते रहे
आंखे बस चुराते रहे
बच्चो का शोषण कराते रहे
अब और नहीं बहुत हो गया
कुछ नहीं अब सहना हैं
चुप नहीं अब रहना हैं

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