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बचपन से लिखने का शौक हैं कभी-कभी सोचकर लिखता हूँ तो कभी-कभी सब्द खुद ही जहन में आकर लिखने को मजबूर करते हैं

Monday 30 April 2012

महंगाई की मार से मर रहा आदमी हैं

महंगाई की मार से मर रहा आदमी हैं
पूछो नहीं कैसे जी रहा हैं आदमी
कभी खुद से कभी हालात से लड़ रहा हैं आदमी
पर जैसे भी हो जी रहा हैं आदमी
कोई अपने घर में भूखे सो रहा हैं
तो कोई चाहकर भी कुछ नहीं  कर पा रहा हैं
महंगाई की मार से मर रहा आदमी हैं
पूछो नहीं कैसे जी रहा हैं आदमी
पढाई भी अपनी पूरी नहीं कर पा रहा हैं आदमी
बीच में ही नौकरी ढूंड रहा हैं आदमी
मेहनत भी करके चैन से सो नहीं रहा हैं आदमी
जानवर की हाल में बस जी रहा हैं आदमी
महंगाई की मार से मर रहा आदमी हैं
पूछो नहीं कैसे जी रहा हैं आदमी

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